इसे मेरी धृष्टता नहीं इसे मेरा संस्कार समझो -- कवि तारकेश्वर मिश्र जिज्ञासु

 


सिंदूर का टीका लगा कर घूम रहे हो बड़े शौक से तुम ! 

सिंदूर वह सुहाग है जो सुहागिन के माथे पर जमता है !! 

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सिंदूर की क़ीमत का अंदाज़ा नहीं तुमको शायद ! 

किसी विधवा से पूछो तो शायद जान जाओ तुम !! 

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तेरे मांग में सिंदूर देखने के लिए क्या कुछ नहीं किया मैंने ! 

आज जब मांग में सिंदूर पड़ गया तो हमें ही पहचानती नहीं !! 

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सिंदूर सिर्फ बाज़ार में बिकने वाला एक पाउडर नहीं ! 

सिंदूर बेशकीमती सुहाग है जिसमें बड़ी ताक़त है !! 

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अपनी मांग का सिंदूर किसी और को नहीं देते ! 

इसे मेरी धृष्टता नहीं इसे मेरा संस्कार समझो !! 

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मांग में सिंदूर भरने की रस्म पूरी कर दिया मैंने ! 

अब तुम्हारा भी भरोसा जग गया होगा मुझ में !! 

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तेरे माथे का सिंदूर यूं ही चमकता रहे भगवन ! 

जीवन पथ पर बढ़ता कदम सदा खुशहाली दे !! 

******************तारकेश्वर मिश्र जिज्ञासु कवि व मंच संचालक अंबेडकरनगर उत्तर प्रदेश !

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